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Wednesday 27 November 2013

तुम हो ...

तुम हो ...
मै जानती हूँ
मेरे आस पास हो, ये भी खबर है
दिख जाते हो ना , यहाँ वहाँ कभी कभी
मिलने वाले होते हो जब भी कहीं
पहले से पहचान लेती हूँ तुम्हे
सब कहीं हो , सब जगह
जानती हूँ मै अच्छे से
जब कोई पास नहीं होता ,
तब तुम हमेशा होते हो
भीड़ में भी तो आओ ना कभी

लोग मुझे पागल समझते है..

कांच का घर

कांच का घर है मेरा
रहती हूँ जिसमे
दीवारे सारी कांच की है
छत भी
और फर्श भी कांच की है
संभल संभल के कदम रखती हूँ
एक डर रहता है हमेशा
हाथ से कहीं चाभी का गुच्छा न गिर जाए
गिर न जाए कहीं अलमारी में रखी चीज़े , जल्दी में
भारी भरकम जूते पहनकर
 कोई तेज़ क़दमों से चलकर
न आ जाये मेरी तरफ
चिटका दे मेरे घर को
ख्वाबो में बसर करना
सबके बस की बात थोड़े ही है


                          shruti 

Sunday 24 November 2013

चुप्पी


This poem is for the hero of my novella , who speaks less and an introvert , while writing story , it was done ..



किस मिटटी के बने हो
गुस्सा आने पर भी चुप  
गुस्सा जाने पर भी चुप
ये चुप्पी कभी टूटती ही नहीं
दम नहीं घुटता तुम्हारा
और ये कैसा प्यार करते हो तुम
जो कभी कुछ बोलता ही नहीं
कुछ मांगता भी नहीं
देता भी है तो चुपचाप
कितने राज़ दफ़न कर के रखे है ?
बताओगे नहीं कुछ  क्या?
चुप रहना और सहना ,आदत है तुम्हारी
या बस आदत है तुम्हारी
तुमको जिंदा करते करते
ज़िन्दगी जी उठी है
यु क्यों लगता है ,कभी किसी रोज़
पीछे से आवाज़ दोगे ,कहोगे फिर
पूछिए अब ,क्या पूछना चाहती है ?


Thursday 7 November 2013

यकीन

यकीन नहीं हम पर
तो मत करो यकीन हम पर
हमे भी कहाँ है खुद पर
गर यकीन पे यकीन होता हमे
तो तुम्हे हम पर होता यकीन
हमे खुद पर होता
हाँ हमे नहीं है यकीं पर यकीन
और तुम हम पर नहीं करते यकीन
तो क्यों खफ़ा हो हम

हमे भी तुम पर है कहाँ यकीन .. 

Wednesday 6 November 2013

मेरा घर था जहां ....

दवाई जैसी महक अब भी है यहाँ  
नहीं कुछ ..तो यूकेलिप्टस के वो पेड़
लोहे के उचें घुमावदार गेट पर
एक डेढ़ मीटर की परछाइयां
झूला करती थी दिन रात कभी
धुंदला धुंदला सा है सब कुछ  
पर गरारी की आवाज़...अब भी है यहाँ
कांच की चूड़ियों के टुकडो से
बनाये थे जो पुल कभी ,बह गए सब
 पाँव  छिल जाएगा मगर  ,
गर पाँव पड़ जाए यहाँ ...
लकड़ी के वो ढेर, हाँ इसी किनारे पर
हरारत हरारत सी लगती है इसे
शायद , होली जलती थी यहाँ ...
पूरी दोपहर बगीचे में ,
गुडिया की शादी ,खाना पकाना
बर्तनों का तो पता नहीं ,
पर जूठन...अब भी है यहाँ
 सकरी सी उस पुलियां में
चलती थी मज़लिस कहानिओं की
कहानी तो सब ख़तम हो गयी
 ठप्पे उन कहानियों के
चिपके है अब भी वहाँ
 सब कुछ तो वैसा वैसा है
जैसा जो कुछ  छोड़ा था
बस बदल गयी है नेम प्लेट

मेरा घर था जहां ....