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Monday 26 May 2014

मुनाजात .... a prayer



 मुनाजात ....

 एक था कांसा बेचारा
एक मेरी फ़ितरत ग़रीब
और बेशुमार थी मांगे
फिर शुरू हुआ सिलसिला
मेरी मांग जाँच का
तू आली है ! तू अकबर है !
अमीर हैं ! तू बसीर है !!
तू देता जा मैं लेती जाऊं
देखो दौलत ज़रूर दे देना
सेहत और जागीर भी  
इक़तेदार भी चाहिए मुझे
शोहरत देना तो क़सीदे भी
और हुस्न के साथ मुरीद भी
मांगती रही मैं बेझिझक होकर
तू सुनता रहा खामोश रहकर
पर हसां भी होगा मन ही मन
कि भरकर मेरा पूरा दामन
मेरा कांसा तब भी ख़ाली रहा
दो लफ्ज़ को तेरे मैं तरसा की
कोई जुनूं मेरी किस्मत न हुआ  
तेरी ख़ामोशी से यह एहसास तो था  
कि ख्वाहिशों की सीढियां चढ़कर
मै कितना उतर अब आई हूँ
मांगे नहीं हैं अब ज़बान पर
अश्कों ने की फ़रियाद हैं     
और ये आख़िरी फ़रियाद है
अब मिटा दे मुझकों मुझसे तू
या मिला दे फिर मुझकों मुझसे
लगता हैं क्यूँ इस बार मुझे  
कि लिया हैं तूने सुन
निदा –ए रब जो आई है
कुन ... फाया कुन



Sunday 18 May 2014

एक मैं हूँ ...



एक मैं हूँ , जो मैं हूँ
एक मैं हूँ , जो होना चाहती हूँ
पर एक और भी हूँ मैं
जो जताती हूँ दूसरों कों
कुछ वक़्त पहले तक
दोस्त थे हम तीनों
मददगार भी थे
निगहबान भी एक दूसरे के
फिर जाने कब ? क्यूँ ?
चुपके से एक बग़ावत ने
जन्म लिया
हम तीनों ने मार गिराया 
एक दुसरे को
अब सिर्फ मैं बची हूँ
और मैं बिलकुल अकेली हूँ !