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Sunday 28 June 2015

देवदार का जंगल ...




आज से कोई आठ साल पहले की बात हैं ...पहली बार जब देखा था इसे ... भूत चढ़ गया हो जैसे ख़ुशी का ..थ्रिल वाली ख़ुशी ..साया आ गया हो ..जैसे सवारी किसी की , दिल ने भीतर काम करने से इनकार कर दिया था ..वो तो बाहर निकल कर धड़क रहा था और पैर कांप रहे थें चलने में ... दिलो दिमाग का संतुलन खो बैठे थें ..विश्वास कैसे होता की ये मंदिर जिन्हें सच में देख रही हूँ ..इनको पहले कभी सपने में भी देखा है ..बिलकुल ऐसे ही थें ..डिट्टो ...मंदिरों की वो झलक कभी नहीं भूल पाएंगे इस जीवन में ...ख़ुशी से पांव लड़खड़ा गया था गिर भी गयी थी मंदिर की सीढ़ी पर उतरते हुए ..
जागेश्वर धाम  नैनीताल से कोई पचपन , साठ किलोमीटर है  | दो घंटे का रास्ता था बस | पर निकलने में ही देर हो गयी थीं नैनीताल से , सो पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी | सर्दी की वो शाम,  सूरज भी जाने को था और मंदिर बस पहुंचे ही थें | शिव जी के ये मंदिर बहुत सारे है यहाँ कोई १०० या १५० होंगे , सब एक ही जगह पर आस पास .. छोटे छोटे पर एतिहासिक सब पुराने पत्थरों से बने ,  ASI की निगरानी में हैं अपना जागेश्वर धाम  | पहाड़ी इलाका और चट्टानों से घिरे शिव जी भी अँधेरे में बैठे थें | बिजली गुल थी उस वक़्त वहां , मंदिर के भीतर घनघोर अँधेरा बस एक दिया जो न जाने कितने सौ सालो से जल रहा था यहाँ  इस अँधेरे में  | भोलेनाथ के दर्शन करके बाहर आ गयी थी फिर  देवदार के दर्शन करने लगी  पर शाम ढलान पर थीं और बढ़ता अंधकार जो बार बार हमे वापिस आने का इशारा दे रहा था उस सकरे पहाड़ी रस्ते से होकर उसी शाम नैनीताल लौटना था पर देवदार के ये जंगल जो एकदम मंदिर के बगल हैं रोक लगा रहे थें |ना जाने क्यों पर वापिस आने का मन नहीं हो रहा था| मंदिर के दूसरी तरफ शमशान था वो भी  बहुत समय से ... और बीच में मंदिर और इस मंदिर से  चिपकी नदी “जटा गंगा”  बेवजह शोर करती बहती जा रही थीं ...अजीब सी बेचैनी हो रही थीं उसकी आवाज़ से ... कोई अनजाना खौफ़ ...थोड़ी देर में वो पुजारी बाहर आ गया जहाँ खड़ी थीं मैं  और उसकी वो बात जिसे आज तक नहीं भूले और न ही यकीन किया अब तक ... “क़ुदरत ऐसी नहीं होती “ मेरे मन ने कहा ...फिर भी ना जाने क्यों तुरंत ही चल पड़े थें वहां से  ....
“ ये देवदार के जंगल देख रहे हैं सबसे पुराना जंगल है ये देवदार के पेड़ो का ... रात में अगर कोई चिता ना जले शमशान में तो ये रात भर शोर करते हैं सोने नहीं देते फिर ....“


Sunday 14 June 2015

A journey to Ladakh ...

8 जून २०१५ सुबह 9 बजे हम सब गाड़ी में बैठ चुके थें वापिस आने के लिए ...आज से ठीक एक हफ़्ते पहले ये सफ़र शुरू किया था , पहली जून को ... मन दुखी था  अजीब सा लग रहा था ... पिछलें आठ दिनों से लदाख के ऊंची नीचे पहाड़ो में आठ आठ दस दस घंटे गुज़ारने के बाद इस थकावट और ठंड की आदत पड़ गयी थीं हमे | जिसे छोड़ना नहीं चाहते थें  जबकि सर्दी ने सबको चख्नाचूर कर दिया था | होटल से एयरपोर्ट का रास्ता सिर्फ़ आधे घंटे का था | ये बात और है कि वापिस आते वक़्त अपने घर की तस्वीर नज़रो के सामने घूम घूम कर आने लगी थी | बिस्तर, बाथरूम, घर का खाना, दोस्त  |  थकी तो गयी थीं  ...पर अभी और थकना चाहती थीं  ...पर बच्चों बहुत थके थें  |  और ये जो थोड़े से पल बचें थें उन्हें पूरा अपने भीतर खींचना चाहती थी कभी आँखें बंद करकें, कभी उस पतले से आँसू को पोंछकर जो सबसे छुपकर निकला था आँख के एक किनारे से , कभी गहरी लंबी सांसें लेकर.... डीप ब्रीथिंग बस डीप ब्रीथिंग करती जा रही थीं ...खुद को समझाते हुए अगली गर्मियों में इससें भी ज़्यादा ख़ूबसूरत जगह जाऊँगी ...पर कहाँ ? लदाख तो लदाख था बस ..लदाख की क्या बात !! अब जहाँ भी जाना होगा लदाख साथ ही जायेगा बेंचमार्क बनकर हमेशा .... या तो जगहें लदाख से कम अच्छी होगी या लदाख से बहुत कम अच्छी |


लदाख ने बहुत कुछ दिया था इन आठ दिनों में , बुद्ध को यहीं पहली बार करीब से जानने का मौका मिला था | बुद्ध यहीं से होकर गुज़रें थें और बौद्धों की चौथी धर्म संगीतिका भी यहीं हुई थी जिस्में बुद्धिज़्म की दो शाखाएँ निकली हीनयान और महायान | और जिस जगह को हम घूमने आये थें वो महायान शाखा का स्थान है शायद इसलिए ही यहाँ ज़्यादा मोहब्बत बसती है | इतना ही नहीं लदाख की हवा में जाने क्या तिलिस्म जो खींचता है अपनी तरफ और  इन सभी बातों का शुक्रिया अदा करना चाहती थी बल्कि करती भी जा रही थी | बीच बीच में जब भी  जितना भी वक़्त मिलता था, जहाँ कहीं भी ..कभी चलती गाडी में , पांगोंग झील के किनारे , चाय पीते वक़्त , कभी बस खालीपन में, रात में सोने से पहले... आँख बंद करके बस वही एक बात “ कि ऊपरवाले ये तूने मुझे कैसी दुनिया दिखा दी इस ज़िन्दगी में और तू क्या कहना चाहता है , ये नीली इंडस, ये श्योक नदी  , ये नुब्रा वैली , ये बर्फ़ से ढकें पहाड़ जो बस चुपचाप बर्फ़ ओढें खड़े रहते हैं बिना किसी उफ़ के , ये विलो के पेड़ जो कम पानी में जिंदा रहते हैं , सितारों से चमकता आसमान जो सिर्फ खुद को खुश करने के लिए चमकता है , ये सब कुछ सिखा रहे थें | धीरे धीरे बेहतर इंसान बना रहे थें और हाफ्ते हाफ्ते बनती भी जा रही या फिर बनना ज़रूर चाह रही थी | यही वजह भी हैं कि लदाख में रहने वाले लोग इतने अच्छे होते हैं | क़ुदरत के करीब रहते हुए ये इतने सिंपल नेचुरल और जेन्युइन...
पर हाफ़्ना बहुत ज़रुरी है यहाँ  , लदाख में,  ऑक्सीजन कम है तो ज़रा भी तेज़ कदम बढ़ाते ही दिल की ऐसी की तैसी हो जाती है और अब तो वापिस आकर अपने शहर में भी तेज़ चलने में डर लगता हैं |  शायद लदाख उन लोगो के लिए ही हैं जो बड़े पक्के वाले घुम्मकड़ टाइप होते हैं , ये खतरनाक साबित हो सकता है आराम पसंद टूरिस्टों के लिए |

यहाँ से गूगल पर मौसम का हालचाल लेकर ही गए थें , गूगल ने तो १६ डिग्री बोला था ये तो वहाँ  जाकर पता चला की १० डिग्री का हेरा फेरी है | तापमान ६ डिग्री था बस होटल पहुँच कर सबसे पहले ऊनी कपड़ों से लैस किया खुद को और  सबको | फिर बस थोड़ी देर बाद दास्तानों टोपो और मोज़ों की तलाश में पास वाली एक दुकान चले गए थें | जबकि पहला दिन यहाँ सिर्फ आराम किया जाता हैं ताकि बदले मौसम के मिजाज़ को समझ सके ये जिस्म और नाता जोड़ सकें इस high altitude से ख़ासतौर विमान से आने वाले लोगो को ज़्यादा मुश्किल का सामना करना  पड़ता हैं क्यूकि वो बहुत कम वक़्त में सफ़र पूरा करते हैं  ...पर अफ़सोस बाहर निकलना हमारी तो मजबूरी थी | दुकान जाना ही पड़ा ,  दुकानदार लद्दाखी था उसने बोला भी था “ ये वाली टोपी लीजिये मैडम इससे कान ढँक जायेंगे यहाँ ठंडी हवा बहुत ज़ोर चलती है याद रखिये आप इस वक़्त ११००० फिट की ऊँचाई पर हैं  “ पर हमें नहीं अच्छी लगी तात्याँ टोपे जैसी टोपी हमने ज़रा सिंपल  टोपी ली और सबसे दुःख की बात अगले दिन सुबह ही उसे बदल कर वही वाली लानी पड़ी जिसका डर था |

टोपी धारण  कर दूसरे दिन हम लोग सबसे पहले “थिकसे मोनास्ट्री” गए थें  | मोनास्ट्री को गोम्पा भी कहते हैं | थिकसे गोम्पा  थोड़ी सी चढ़ाई करके ही मिला था  और हाफ्ते हाफ्ते ऊपर पहुंचे थें | हमारे होटल से एक घंटे की दूरी पर थी ये मोनास्ट्री और रस्ते भर “ प्रेयर फ्लेग्स “ और स्तूपों ने तिब्त्तन बुद्धिज़्म की खुशबू बिखेर रखी थी | हमारे tour manager “ उर्ज्ञान “ ने बताया की ये रंग बिरंगे फ्लैग्स जिनपर गौतम बुद्ध की teachings लिखी होती है | इनको हम लोग कहीं पर भी लगा सकते हैं घरों के बाहर , पेड़ो में पहाड़ों पर कार में बाइक पर कहीं पर भी और हवा जब चलती है तो इन फ्लैग्स को छूते हुएँ वो बुद्ध की बातें उनकी सीख उनकी खुशबू को पूरी फ़िज़ा में फैला देती है | इनको तो बस देखने से ही मन शांत हो जाता हैं और इनका गहरा रिश्ता है  “बॉन धर्म परंपरा “ से जो शायद बुद्धिज़्म के भी पहले से हैं या उसे साथ ही गुथा हुआ हैं “| तिब्बतन बुद्धिज़्म से ये मेरी पहली मुलाकात थी | ये बुद्धिज़्म की महायान शाखा से जुड़ा हैं | जिसमें अकेले सफ़र नहीं करना होता बल्कि ये “नूह की कश्ती” है | सबके लिए जगह है सबको सैलाब के पार जाना है | मोहब्बत और प्यार से भरी ये बुद्धिज़्म की वो शाखा है जो सबको पनाह देते हुए चलती है | इसमें औरतो के लिए भी जगह हैं ये बौधिस्म की हीनयान शाखा से अलग हैं | यहीं वजह है लदाख की मोनास्ट्री में औरतें भी रहती है उनके रहने की जगह अलग होती हैं पर उन्हें अधिकार हैं |  भारत नेपाल चाइना भूटान मंगोलिया तिब्बत इन सभी देशों में इसको प्यार करने वाले बसते हैं | Dalai Lama को ये बुद्ध का अवतार उनका मैसेंजर मानते हैं |
थिकसे गोम्पा की एक झलक , ये फोटो बड़े दूर से ली थीं
इस मोनास्ट्री में कुछ मॉन्क्स भी दिखे थें और “FUTURE BUDDHA “की बहुत विशाल मूर्ति भी देखी | उर्ज्ञान ने बताया कि सभी बुद्धिस्ट भविष्य में आने वाले बुद्ध का इंतज़ार कर  रहे है | जैसे इस्लाम और क्रिश्चियनिटी Future Messiah का रास्ता देख रही हैं | सभी को ज़रूरत है किसी चमत्कार की जादू की | थिकसे गोम्पा को लिटिल लासा भी कहते हैं यहाँ के लोग  |  
Future Buddha जिनका लदाखी कर रहे हैं इंतज़ार
इसके बाद हम “शे पैलेस” चले गए थें | "थिकसे" से "शे" जाने वाले रस्ते पर अनगिनत स्तूप दिखे थें ये सभी सफ़ेद रंग के थें| हर स्तूप किसी ख्वाहिश को बयाँ करता हैं जैसे गाँव में महामारी से बचना हो या सूखा आ जाये तो बारिश के लिए या बाढ़ से निज़ात मिले और ऐसे स्तूप बनाने से पहले लामा से इजाजत ली जाती है | इन स्तुपो के अंदर बुद्ध से सम्बंधित कई चीज़े रखी रहती है | स्तूप की खास बात की इसमें कोई दरवाज़ा नहीं होता ..ये बंद होते हैं चारो तरफ से | शे पैलेस शे गोम्पा  में बुद्ध की जो मूर्ति देखि थी लगभग ४० फिट ऊंची और पूरी ताम्बे और सोने से लिपटी पड़ी थीं | लेह से पहले “शे “ राजधानी थीं लदाख की | “शे” से फिर हमे इंडस रिवर बैंक्स जाना था और ड्राईवर ने रस्ते में ही बता दिया था की सिंधू नदी में पानी कम होगा क्यूकि गर्मियां शुरू हो गयी हैं और वो सही था | वहां की गर्मियां ६ डिग्री तापमान की होती हैं | ये वहीँ जाकर पता चला था | लेकिन वो रास्ता बहुत ख़ूबसूरत बहुत ख़ूबसूरत एकदम वैसा ही जैसा हमलोग बचपन में सीनरी पेंट करते थें | कुछ पहाड़ एक सूरज बीच से निकलता हुआ एक नदी बहती कुछ पंछी उड़ते हुए कुछ पेड़ ...एक झोपड़ी भी और थोड़ी सी घास ...

सारा , (मेरी बिटिया ) सिंधू नदी के किनारे 

इसके बाद स्टॉक पैलेस जिसे स्टॉक गोम्पा या स्टॉक मोनास्ट्री भी कह सकते है | दरवाज़े पर शेर का बड़ा भारी  मुँह लकड़ी से बना हुआ लटका था | इस गोम्पा की सुरक्षा में सेवारत ये शहर के मुँह नकरात्मक एनर्जी से बचाते हैं  | इन्हें Lion Guard कहते हैं ये भी जगह जगह दीखते हैं लदाख में |

Lion गार्ड , लदाख में जगह जगह दीखते हैं ये
 म्यूजियम और लाइब्रेरी दोनों थें यहाँ स्टॉक पैलेस में | इसके अलावा भी बहुत किस्म की चीज़े जैसे yak की हड्डी के बने कलम , पुराने ज़ेवरात भारी भरकम ,  पुराने वाटर फ़िल्टर वो बड़ा दिलचस्प लगा हमे ...राजा और रानी के कपड़े , हालाँकि अब वहां राजशाही कुछ नहीं सब कुछ जम्मू एंड कश्मीर सरकार के हाथों में हैं |पर बच्चें मेरे अब थक गए थें चढ़ते चढ़ते सुबह से ...सो गाडी में ही बैठे रहे इस बार पिज़ा खाते रहे बस ...

स्टॉक पैलेस में देखा एंटीक वाटर फ़िल्टर

पर “शांति स्तूप” में हम सब गए थें एकदम गोल और शांत बुद्ध के सिर जैसा आखिर शांति किसे नहीं चाहिए .... बहुत ख़ूबसूरत बहुत शांत बहुत शानदार बहुत सफ़ेद है ये स्तूप बस शांत होने का दिल करता हैं यहाँ ...एक बार फिर बुद्ध के दर्शन .... और ये हमारा पहला दिन का एंड था जिसमें हमे लेह का लोकल sight seeing किया था | किसी भी तस्वीर में टोपी नहीं आने दी हमने लगभग 200 फोटो खींच चुके थें अबतक .....
शांति स्तूप
और अब कल यानी तीसरा दिन यानी pangong lake , dimox टेबलेट खाकर निकले थें सब , हाई altitudes में ये मेडिसिन हेल्प करती हैं और वैसै भी 160 kilometers जाना था लेह से.. पूरा पहाड़ी रास्ता और पहाड़ी भी कैसा कि दुनिया की तीसरी सबसे ऊंचीं रोड पर सफ़र तय करना था ये ... १३४ किलोमीटर लंबी झील कभी सपने में नहीं देखी  थीं आज आँखों से देखने वाले वाले थें पूरा रास्ता उसके इंतज़ार में बीत गया , मन रस्ते भर खुश था लदाख ऐसी जगह हैं जहाँ न चाहकर भी खुश होना ही पड़ता हैं | थके हुए भी खुश चढ़ाई करते हुए भी खुश ठंड में भी खुश हमेशा ही ख़ुश ....लदाख की सबसे ज़बरदस्त बात ये कि पूरा का पूरा रास्ता ही eye tonic हैं | मंजिल पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं कभी ...



 कुछ दूर चढ़कर ही Y फॉर yak भी दिखने लगे थें | yak एक बहुत ज़रूरी हिस्सा यहाँ का ..yak को पालने वालों को बहुत प्यार देते हैं लद्दाखी  , दहेज़ में भी दिए जाने वाले ये yak ,जिन जगहों पर थोड़ी भी घास पाते हैं चरने के लिए वहां पूरे दिन के लिए छोड़ दिए जाते हैं , इनके सींग पर “ॐ मणि पद्मे हुम “ लिखकर इन्हें धार्मिक जगहों पर भी रखते है कभी हरा कभी मैरून पेंट भी कर  दते हैं  ... yak बहुत करीब लदाखियों के दिलो के ... 

yak का सींघ ..




pangong के रस्ते पर मैं ...

लदाख में जगह जगह एक और चीज़ देखी वो ये कि एक बहुत लम्बे बांस को सीधा ज़मीन पर गाड़ देते है उसके चारो तरफ प्रेयर फ्लैग्स लगा देते है और सबसे ऊपर yak की पूँछ लटका दते हैं ,धार्मिक अनुष्ठानों में ये काम आता है| yak के बालों को कैंप बनाने में लगाते हैं , इसकी उन भी कीमती है और हड्डियों से तरह तरह के ज़ेवरात बनते हैं | yak के सिवा एक और जीव दिखा था तीन बार जिसे “मरमोट” कहते हैं ...

रास्ता चलता जा रहा था ... कई किलोमीटर तक चढ़ने के बाद फिर नीचे जाना था pangong के लिए पर वो चढ़ाई वाला रास्ता पूरा बर्फ़ीला था बीच में चांगला पास भी पड़ा था | आसमां एकदम नीला और दाए बाए बर्फ़ के पहाड़ , ये सब देखकर कोई फीलिंग्स ही नहीं बची थीं मुझ में| किसी बुत की तरह पत्थर की आंखों लिए देख रही  थीं और यकीन दिलाते हुए कि हाँ ,  ये कोई फिल्म नहीं चल रही है , ये मैं देख रही हूँ | और मैं जिंदा हूँ  ....
चांगला पास से आगे सिर्फ बर्फ़ ही बर्फ़ थी
सुबह के चले 2 बजे हमलोग pangong पहुँच गए थें ....ख़ूबसूरत बस खूबसूरत और कोई शब्द नहीं , कई बार देखा है पहले भी कि इस दुनियाँ की बहुत सी ख़ूबसूरत चीज़े खुद को बड़े ही रहस्मयी तरीके से किसी एकांत में पाल पोस रही होती हैं  .. वो इस कदर ख़ूबसूरत हो चुकी होती हैं कि उन्हें भीड़ से , तारीफ से,  कुछ फ़रक नहीं पड़ता कोई देखे कि न देखे ...वो तो खुश हैं बस अपने आप से अपने होने से अपने एकांत से ...pangong लेक भी ऐसी थीं ...बतख तैर रहे थें उस पर , sea gulls भी होते हैं यहाँ पर वो हमे दिखे नहीं | कहते हैं जिस दिन आसमान नीला होता हैं उस दिन लेक भी नीली हो जाती हैं और वो टूरिस्ट लकी होते जो नीली pangong देखते हैं पर हमारा तो bad luck था |  धूप जब पड़ती है तो इन्द्रधनुष के सभी रंग दिखते हैं  .... बहुत लंबी और एकदम भूरे भूरे पहाड़ों के बीच ...याक सफारी भी थीं यहाँ |

pangong lake

और आज यानी चौथा दिन ...हमे नुब्रा वैली जाना था खर्दुन्गला पास होकर , ये रास्ता कल से भी लम्बा था और ये दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची रोड


 ...नुब्रा वैली यानी फूलों की वादी लगभग १५० किलोमीटर लेह से ...पहले साउथ पुल्लू फिर खर्दुन्गला पास फिर वहाँ से नार्थ पुल्लू फिर खर्दुंग फिर खर्दुंग से खल्सर और खल्सर से सुमूर और सुमूर में देखने थें सैंड dunes ...

साउथ  पुल्लू से नार्थ पुल्लू तक का सफ़र बहुत कठिन | रोड नहीं बनी है बहुत ख़राब रास्ता और बर्फ़ पिघलकर नीचे आ जाती हैं जगह जगह गड्ढ़े है जिनपर पानी भरा है और यहाँ वहां बर्फ़ भी पड़ी हैं पूरा पहाड़ी रास्ता खतरों से भरा और रास्ते में एक गाडी को गिरते भी देखा था तो दिल ज़रा सा खौफज़दा भी था फिर ऊपरवाले के हाथों में जिंदगी की डोरी थमाकर बस आगे बढ़ गए थें | बर्फ़ से ढकें पहाड़  तो pangong के रस्ते पर भी देखे थें पर यहाँ बहुत ज़्यादा थें | खर्दुन्गला पास पर ज़ोर की बर्फ़ गिर रही थीं | इन आँखों से ऐसा नज़ारा पहली बार देखा था|


सुमूर तक पहुँचते हुए शाम हो गयी थीं फिर सबसे पहले हमलोग ”दिस्कित गोम्पा” गए थें यहाँ भी फ्यूचर बुद्ध की बहुत बड़ी मूर्ति खुले आसमां के नीचे देखीं थीं ..बहुत बड़ी थीं वो और बहुत अच्छी  जगह ...
दिस्कित गोम्पा ..

...फिर यहाँ से सुमूर के सैंड dunes देखने चले गए थें ...बर्फ़ के बीच सैंड dunes कुछ अजीब लगा सुनकर तो उर्ज्ञान ने बताया कि यहाँ बहुत पहले किसी समय नदी में बढ़ आ गयी थीं पानी सूख जाने के बाद से ये रेत आज भी यहीं हैं उड़ा करतीं हैं और सैंड dunes बनाती  रहती हैं | यहाँ की रेत एकदम सफ़ेद थीं  और सुमूर के रस्ते पर एक और चीज़ भी देखी  थीं एक बहुत विशाल मैदान जिसके बीच में एक पतली सी रोड और दोनों तरफ पत्थर ...अजीब सा ख़ालीपन था इस जगह पर वो सूर्यास्त का वक़्त था और अजीब सी बेचैनी हो रही थीं बस आँखें बंद करके बैठने का दिल था वहां पर जो संभव नहीं मेरे लिए  परिवार के साथ  | इस ख़ाली जगह को देखकर लगा कि शायद मेरी रूह यहीं आएगी सबसे पहले | इस जगह पर कुछ था जो रोक रहा था | कोई अनजाना खिचांव था | पता नहीं पर घूमते वक़्त अक्सर ऐसा लगता हैं कि घूमना बहुत ज़रूरी है घूमते घूमते कई बार आप खुद से मिलने लगते है खुद के ही कई रूप सामने आ जाते हैं | घूमना एक पवित्र अनुभव है|
सैंड dunes इस जगह पर odd man out की तरह थें .. बर्फ़ के बीच रेत के dunes | बच्चों को कैमल सफारी करायी थीं | यहाँ पर ये लोग अपना पारंपरिक डांस भी दिखाते हैं |
संज्ञा बड़ी  बेटी ..

यहाँ के कैमल्स के बाल बहुत कम होते हैं और इनमें डबल hunch था | एक और चीज़ जो करी वो ये कि लदाखी पारंपरिक परिधान में फोटो भी ली थीं | बेशक पुराना फैशन है पर आज भी है ये फैशन में ...

ये सब दिलचस्प था बहुत | ये सब करके हम अपने होटल चले गए थें जो एक  बहुत शांत जगह थीं |  यहाँ क़रीबन आधा किलोमीटर से भी लंबी "मानी " देखी थीं | मानी और स्तूप में एक बड़ा अंतर ये है कि मानी के कुछ रखते नहीं बस इसकी छत को पत्थरों से ढँक देते है और हर पत्थर पर बुद्ध की teachings .. "ॐ मणि पद्मे हुम " ये बहुत ख़ूबसूरत मन्त्र जिसमें प्रार्थना करने वाला खुद के दिल दिमाग रूह को बुद्ध जैसा बनाने की कामना करता हैं |जिसे संघ में सबके साथ गाते हैं | 
मानी की छत पर रखे पत्थर , बुद्ध मन्त्र के साथ



ये मानो होटल के किनारे बनी थीं ..हमारा होटल जहाँ बिजली सिर्फ तीन घंटे और टेलीफोन के सिग्नल बस शाम को दो घंटे आते थें सिर्फ बीएसएनएल का पोस्ट पेड और कुछ नहीं | मेरा फ़ोन तो पिछले एक हफ्ते से bed rest  पर था |
और यहाँ इस होटल में ऑस्ट्रेलिया का एक ग्रुप आया था कई लोग थें और इस ग्रुप में एक अकेला अमेरिकन “माइकल“ , उमर ६५ बरस , आँखों का रंग हरा , और प्रोफेशन से अनेस्थिटिस्ट और अब रिटायर्ड ..अब तक तीन बार लदाख आ चुके थें वजह पूँछ्ने पर बताया की उन्हें ये जगह बहुत शांत लगती हैं | अमेरिका में बहुत शोर हैं इसलिए वो यहाँ आना पसंद करते हैं | मेरे उनमें बीच में एक चीज़ कॉमन थीं ... “रूमी“ मतलब जलालुद्दीन मोह्हमद रूमी .. पर्शियन पोएट .. सूफ़ी देरवैश ..वो तो कोयना रूमी के शहर भी हो आये थें उनके tomb पर भी |  यहीं वजह थीं माइकल से बात बहुत लंबी चली थीं ...चलते चलते तक वो मेरे अच्छे दोस्त बन गए थें |

माइकल के साथ..
रात में डिनर करके बॉन फायर का इंतज़ाम था सबने गाने गायें पर सबसे अच्छा संज्ञा ने गया  | "जेन"  जो ऑस्ट्रेलिया से आई थीं अपने देश का फोक गीत गया था ... और रात में आसमान ऐसे चमक रहा था जैसे दुनिया के तारें यहीं जमा हो गए हो | अँधेरे में भी आसमान एकदम नीला दिख रहा था इतना साफ़ था वो कोई प्रदुषण कोई स्मोग़ नहीं ...ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार वाली पोएम याद आ रही थीं उन सितारों को देखकर | लेह आने से पहले किसी दोस्त ने बताया भी था कि नुब्रा जाकर वहां का आसमान ज़रूर देखना | वो बहुत अनोखा आसमां हैं चाहो तो घंटो बिता सकते हो इससे देखते देखते ...आसमान बहुत गज़ब यहाँ का दिन हो कि रात ...
सुबह मन बहुत खुश था रात में हलकी बारिश हुईं थीं और ब्रेकफास्ट के वापिस आना था लेह ...हम सब चल पड़े पर करीब ३० किलोमीटर आने के बाद पता चला रस्ते में लैंड स्लाइड हो गया हैं रात के बारिश की वजह से और आज रात फिर सुमूर में बितानी होगी | रस्ते में ही कहीं लंच करके हम वापिस आने लगा पर कुछ देर खर्दुंग गाँव में रुकने की सोची ..ये गाँव हाईवे पर था गाडी रोककर एक स्तूप के अगल बगल खड़े होकर तस्वीरें उतारने लगे | और बगल में एक घर था किसी गाँव वाले का घर के बाहर वही बांस वही प्रेयर फ्लैग्स और वही yak की पूँछ ...उत्सुकता वश दरवाज़ा खटखटाया और बहुत जल्द उस घर का मालिक बाहर आया ..ग्यालपो .. उसने बहुत कुछ बताया अपना घर भी दिखाया घर की तस्वीरे भी लेने दी और अपने घर में बनी एक छोटी सी मोनास्ट्री में भी ले गया |
ग्यालपो के पापा अपने घर की छोटी सी मोनास्ट्री में ...
वहां बुद्ध अपने कई अवतारों में मौजूद थें और दलाई लामा जी की एक बड़ी तस्वीर लगी थी  | बुद्ध की मूर्ति के सामने करीब ३० ३५ कटोरियों में पानी भरकर पूजा कर रहे थें ग्यालपो के पापा |शाम को ये कटोरियाँ खली कर देते थें सुबह को फिर पानी भरकर बुद्ध को अर्पित | ऐसी ही कटोरिया रस्ते के किसी होटल में भी देखी थीं पूजा घर वहां पर उसमें टॉफ़ी भरी राखी थीं |  और गोम्पा में भी ऐसा देखा था पहले कई जगह कई बार | ग्यालपो से बहुत सी बातें हुई उसने “स्तूप” “मानी” और “लातो “ में फ़रक भी बताया क्युकी ये तीनो चीज़े लदाख में जगह जगह दिखती हैं  | चलते वक़्त “छंग “ की एक बोतल भी दी थीं ..वहां की लोकल व्हीट बियर जो दुकानों पर नहीं मिलती जो हमेशा कोई लदाखी ही आपको गिफ्ट कर सकता हैं | तो अगर आप लदाख जाकर छंग पीकर आते हैं तो मतलब आपने लदाख में दोस्त भी बनाये |

ग्यालपो का सौ साल पुराना घर ...
छंग यहाँ की लोकल wheat  बियर 
और फिर थोड़ी देर बाद वापिस सुमूर जाना था , पहुँचते हुए रात हो गयी थीं | उसी होटल का वहीँ कमरा फिर एक बार रहने को मिला  ....पर इस बार वो बात कहाँ थीं हालाँकि हम लोग हर पल की ख़ूबसूरत बनाने की कोशिश कर रहे थें लेकिन तकलीफ़ इस बात की थी कि आज हमे लेह में होना था आज की शाम वहा की बाज़ार करनी थीं कुछ सौवनिएर लेने थें पर इस landslide ने सब बिगाड़ दिया था | और हर चीज़ अपने मन से कहाँ होती हैं ...ये लदाख हैं यहाँ सब क़ुदरत की चलती आईटीनरी  के हिसाब से कुछ नहीं होता | रात में जल्दी सो गए थें इस उम्मीद से कि खर्दुन्द्गला चेक पोस्ट जाने की इजाज़त देगा कल सुबह .. 
हमलोग के सामने कुछ लोगो की फ्लाइट मिस हो गयी थीं इस landslide के चलते और लेह पहुँचते ही अगले दिन हमे भी निकलना था अपने शहर लखनऊ के लिए ... सुबह सिर्फ़ अपने मन की चली कुछ मैगपाई चिड़ियों और पिंक एंड येलो वाइल्ड रोज़ेज़ की तस्वीरें उतारी और नास्ते में एप्रीकॉट जैम का मज़ा लेकर हम सब रवाना हो लिए थें | सफ़र लम्बा था और जगह लेह बेर की झाड़ देखने को मिली ये हलके बैगनी रंग की होती हैं | जगह जगह रुककर चाय कहवाँ खाना पीना खाते हुए शाम लेह में मिली | बच्चों को होटल छोड़कर हम इनके साथ लेह बाज़ार को चल पड़े ..
ये ऑटो या रिक्शावाला नहीं होते खुद ही चलना होता हैं हाफ्ते हाफ्ते | बाज़ार में कई जगह Bob Marley के पोस्टर्स भी दिखे फिर पूंछने पर पता चला कि यहाँ रस्ताफारी आते हैं और शहर में बॉब मारले का क्रेज हैं विदेशी टूरिस्ट के वजह से ...कुछ प्रेयर व्हील्स कुछ प्रेयर फ्लैग्स कुछ शंख और भी छुट पुट यादें लेकर वापिस अपने होटल में अगले दिन का इंतज़ार में ..ये इस ट्रिप की आख़िरी रात थीं लेह में ..होटल की खिड़की से लेह की फोर्ट रोड खूब जी भरकर देखा और बाज़ार के तमाम शोर शराबें को ज़हन में समा लिया ये सोचते हुए कि ये वक़्त ये होटल ये कमरा ये खिड़की ये नज़ारा दोबारा कभी नहीं मिलेगा और इससे हम लम्बे समय तक याद रखेंगे  ..... अपने शहर की गर्म उदासीन शामों को इस सर्द रात को याद कर उस शाम को ताज़ा कर लेगे ...और बुद्ध के "महायान" मतलब बहुत बड़े जहाज़ में बैठकर कहीं दूर बहुत दूर निकल जायेंगे .....